कर्मों से कर्मों का शुद्धिकरण

भारतीय जीवन दर्शन में स्पष्ट किया गया है कि कर्म का फल अवश्य मिलता है। किंतु किसी भी कर्म का फल कब मिलेगा इसका भी नियम है। कर्ता को अपने कर्मों का फल उसी नियम के अनुसार ही प्राप्त होता है। कोई भी कर्म जब कर्ता को अपना फल देने के लिए तैयार हो जाते हैं तो कहा जाता है कि वे कर्म परिपक्व हो गये। इसका निश्चय जिस सिद्धांत से तय किया जाता है उसे कर्म फल परिपाक कहते है। अत: फल परिपाक की दृष्टि से जन्म-जन्मांतरों से लेकर आज के वर्तमान क्षण तक किये गये अभुक्त कर्मों के फल संचित-कर्मफल कहलाते हैं। अनेक जन्म-जन्मांतरों के संचित कर्मफलों को एक साथ भोगना संभव नहीं है। क्योंकि इन कर्मों के परिणाम स्वरूप मिलने वाले कई प्रकार के फल परस्पर विरोधी होते हैं। उन्हें एक के बाद एक करके भोगना पड़ता है। फलस्वरूप संचित-कर्मफलों में से जितने कर्मों के फलों का भोग प्रारंभ हो चुका है, उतने ही को प्रारब्ध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि संचित कर्मों के फल-संग्रह में से वर्तमान काल में मिल रहे फल, संचित कर्मफलों का एक छोटा सा भाग होता है जिसको प्रारब्ध कहते हैं। लेकिन जो कर्म अभी हो रहा है या होगा, उसके परिणाम को यिमाण कर्म का फल कहा जाता है।

जीवन एक ऐसा अनमोल उपहार है जो हम जीवों को जीवनदाता द्वारा अति अनुग्रह पूर्वक प्रदान किया गया है। यही वजह है कि अपने जीवन को पूरी समग्रता से जी लेने की गहरी इच्छा हर प्राणी के अंदर जन्म से ही मौजूद रहती है। फलस्वरूप संसार के प्रत्येक प्राणी, चाहे वे छोटे हों या बड़े, सभी जीवित रहना चाहते हैं। कोई प्राणी मरना नहीं चाहता और न ही कोई दु:ख पाना चाहता है। सभी चाहते हैं कि मेरा जीवन सुखों से परिपूर्ण हो और मैं इसका उपभोग पूरी समग्रता से करूं। मेरा सम्पूर्ण जीवन सुखमय व्यतीत हो, किसी भी प्रकार की प्रतिकूलताएं मेरे जीवन के मार्ग पर दु:ख के कांटें न बिछा दें। अत: जीवित रहने के लिए जो कुछ भी जरूरी है, उसके लिए समस्त प्राणी सदैव प्रयत्नशील रहते हैं और अपने अनमोल जीवन को बचाने के लिए बड़े से बड़े जोखिम को उठाने से भी कतराया नहीं करते।

आपने देखा होगा, एक नन्हीं सी चींटी भी अपने जीवन को बचाने और इसे सुखमय बनाने के लिए कितनी सजग व सचेष्ट रहती है। जीवित रहने के लिए आवश्यक आहार और आवास आदि की व्यवस्था करने में वह निरंतर लगी रहती है, साथ ही अगली पीढ़ी की सुरक्षा आदि की भी समुचित व्यवस्था बिना किसी शिकवा-शिकायत के करती रहती है। यही बातें प्रकारांतर से अन्य पशु-पक्षियों पर भी लागू हैं। मनुष्य जिसे सभी प्राणियों का सिरमौर माना गया है, वह भी नैसर्गिक रूप से सुख पूर्वक जीवित रहने और सुख पाने के लिए हमेशा कोशिश करता रहता है। लेकिन मैं पूछता हूं कि यदि अन्य प्राणियों की तरह ही मनुष्य भी अपना जीवन जैसे-तैसे भाग-दौड़ करते हुए ही गुजार दे तो उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जायेगा? फिर क्यों उसे सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बताया गया है? ज्यादातर लोग सोचते हैं कि मानव बुध्दि की विशिष्ट क्षमता की वजह से ही उसे समस्त प्राणियों का सरताज मान लिया गया है। लेकिन हमारे प्राचीन मनीषियों ने इसे कर्म प्रधान योनि होने की वजह से श्रेष्ठ माना है। क्योंकि एकमात्र मनुष्य को ही कर्म करने का विशेषाधिकार मिला हुआ है और यदि वह चाहे तो जन्म-मरण के सनातन भवच से मुक्त होने की विशिष्ट साधना का महान कार्य भी इस मानव शरीर में संपादित कर सकता है।

 Previous    1   2   3   4   5     Next 
Last updated on 25-04-2024
Home :: Lord Shani :: Shani Sadhe Satti Dhaiya :: Shree Shanidham Trust :: Rashiphal :: Our Literature
Photo - Gallery :: Video Gallery :: Janam Patri :: Pooja Material :: Contact Us :: News
Disclaimer :: Terms & Condition :: Products
Visitors
© Copyright 2012 Shree Shanidham Trust, All rights reserved. Designed and Maintained by C. G. Technosoft Pvt. Ltd.