नवग्रह पीड़ाहर स्तोत्र
मनुष्य भी अन्य प्राणियों की तरह पूर्वकृत कर्मों से बने प्रारब्ध को भोगा करता है। किंतु अन्य प्राणियों की तरह वह सिर्फ प्रारब्ध भोगने के लिए विवश नहीं है। क्योंकि उसके पास कर्म करने का अधिकार है जिससे वह पूर्वकृत अशुभ कर्मों की कड़वाहट को कम कर सकता है। कोई बड़ा अनुठान न सही, केवल नवग्रह पीड़ाहर स्तोत्र का पाठ कर मनुष्य अपना जीवन सुखमय बना सकता है।
जब मनुष्य चारों तरफ से तरह-तरह की परेशानियों से घिर जाता है तो उसकी समझ में नहीं आता कि क्या करूं और कहां जाऊं। धीरे-धीरे मानसिक व शारीरिक रोगों का शिकंजा भी उस पर कसने लगता है। ऐसी स्थिति में वह इतना निराश हो जाता है कि वह अपने आपको प्रारब्ध की बेडिय़ों में जकड़ा एक विवश प्राणी मान हाथ पर हाथ रख चुपचाप बैठे हुए अपने कर्मों को कोसता रहता है। किंतु ऐसा करना उचित नहीं। माना यह बात शत प्रतिशत सही है कि हम जो भी सुख दुख भोगते हैं वह हमारे अपने कर्मों के फलस्वरूप ही प्राप्त हो रहें हैं किंतु हमें वर्तमान समय में कर्म करने का जो दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ है उसका लाभ भी उठाना चाहिए। इस वर्तमान समय में पूर्व कृत पापों के प्रायश्चित वाले शुभ कर्म भी कर सकते हैं। ग्रहों के माध्यम से प्राप्त होने वाले निज कर्मों के भोग को भी हम संबंधित ग्रहों को प्रसन्न करने वाले अनुष्ठान कर प्रभावित कर सकते हैं। यदि बड़े अनुष्ठान न कर पायें तो भी निराश नहीं होना चाहिए। नवग्रह पीड़ा हर स्तोत्र का नियमित पाठ करने से हमारा जीवन सुखमय बन सकता है। हमें हर प्रकार की पीड़ा व कठिनाइयों से मुक्ति मिलती है। किसी विशेष उदेश्य की पूर्ति हेतु इस स्तोत्र को प्रतिदिन 11 बार पाठ लगातार 21 दिनों तक करें। 21 दिनों के अनुष्ठान के बाद दशांश हवन, तर्पण व मार्जन कर ब्राह्मण भोजन करायें। उसके बाद नित्य इस स्तोत्र का एक बार पाठ अवश्य करें। शीघ्र लाभ मिलेगा।
ग्रहाणामादिरादित्यो लोकरक्षण कारक:।
विषमस्थान संभूतां पीडां हरतु मे रवि:।।
रोहिणीश: सुधामूर्ति: सुधागात्र: सुधशन:।
विषमस्थान संभूतां पीडां हरतु मे विधु:।।
भूमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत्सदा।
वृष्टिकुदृष्टिहर्ता च पीडां हरतु मे कुज:।।
उत्पातरूपो जगतां चन्द्रपुत्रो महाद्युति:।
सूर्यप्रियकरो विद्वान्पीडां हरतु में बुध:।।
देवमन्त्री विशालाक्ष: सदा लोकहिते रत:।
अनेक शिष्यसंपूर्ण: पीडां हरतु में गुरु:।।
दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदाश्च महामति:।
प्रभुस्ताराग्रहाणां च पीडां हरतु मे भृगु:।।
सूर्यपुत्रो दीर्घदेहो विशालाक्ष: शिवप्रिय:।
दीर्घचार: प्रसन्नात्मा पीडां हरतु मे शनि:।।
महाशिरो महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो महाबल:।
अतनु: ऊध्र्वकेशश्च पीडां हरतु में शिखी।।
अनेक रूपवर्णेश्च शतशोऽथ सहश:।
उत्पातरूपो जगतां पीडां हरतु मे तम:।।
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