कर्मों से कर्मों का शुद्धिकरण
अधिकांश मनुष्यों का मन मायाकृत प्रपंचों से मोहित हो जाता है और वे इंद्रिय-विषयों की प्राप्ति को ही अपना परम लक्ष्य मान लेते हैं। इस प्रकार वे आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध आदि तन्मात्राओं की उपलब्धि से अपने कान, त्वचा, आंख, नाक, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त करने के लिए ही अपनी सभी कर्मेन्द्रियों को पूरी तरह लगा देते हैं। इस प्रकार अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इंद्रिय-विषयों का संग्रह करने की जितनी भी कोशिश मनुष्य द्वारा की जाती है, उतनी ही प्रचंडता से नयी कामनाओं की भी आग भड़क उठती है। मनुष्य की ऐसी कोशिश आग को घी से बुझाने के समान मूर्खता भरी होती है, जिससे विषय-वासनाओं की, तरह-तरह की कामनाओं की आग पहले से भी अधिक धधक उठती है।
यही वजह है कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने विषयों के भोग में संलिप्त रहने वाली मानसिकता से ऊपर उठने के लिए मनुष्य को बार-बार सचेत किया है। किंतु माया-मोह के बंधन में पड़े लोग प्राचीन मनीषियों के उपदेशों को बड़े हल्के ढंग से लेते हैं और सोचते हैं - ये उपदेश अन्य लोगों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। किंतु याद रहे, हमारे प्राचीन मनीषियों ने जो कुछ भी उपदेश दिया है, मानव मात्र की भलाई के लिए दिया है।
सच कहिए तो हमें उनके उपदेशों व आदेशों पर इस प्रकार से अमल करना चाहिए, मानो वे उपदेश व आदेश मेरे और सिर्फ मेरे लिए हैं। क्योंकि वह मानव मात्र की भलाई के लिए हैं और मैं भी एक मनुष्य हूं। इसलिए सबसे पहले वे मेरे लिए ही कहे गये हैं। यदि हम इस प्रकार की सोच रखते हैं तो इनसे हमारा अपना ही भला होता है। मनुष्य से भिन्न अन्य प्राणियों को प्रारब्धवश जो भी अनुकूल या प्रतिकूल फल उपलब्ध हो रहे हैं, वे उसे भोगा ही करते हैं। किंतु मनुष्य होने के नाते हमें जीवनदाता ने जो एक महान सुअवसर प्रदान किया है, उसका समुचित उपभोग कर हम अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फल से त्राण पाने के लिए प्रायश्चित कर सकते हैं तथा जीवन के परमलक्ष्य की सिध्दि भी बड़ी आसानी से कर सकते हैं। |