कर्मों से कर्मों का शुद्धिकरण
यह एक सामान्य समझदारी की बात है कि जहां हम रहते हैं उस स्थान को हम साफ-सुथरा रखते हैं। लेकिन जिस शरीररूपी घर में 'आत्मा' रहती है, उस शरीर को हम दूषित विचारों से, दूषित भावनाओं से, निराशा के कूड़ा-कर्कट से प्रदूषित करते जा रहे हैं। फलस्वरूप हमारे अंदर दिन-प्रतिदिन नकारात्मक विचारों का जमघट बढ़ता चला जा रहा है और हमारे गाढ़े पसीने की कमाई का एक बहुत बड़ा भाग डाक्टरों और दवाइयों पर खर्च होता जा रहा है। कहते हैं, खर्च से कर्ज़ बढता है, और मर्ज से दर्द बढ़ता है। इस प्रकार दर्द से कराहते लोग उससे मुक्ति के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास करते हैं। किंतु एक प्रकार की पीड़ा से मुक्त होते ही दूसरे प्रकार की पीड़ा सिर पर सवार हो जाती है। ऐसा किसी एक व्यक्ति के साथ नहीं होता। लगभग सभी पीड़ा के दलदल में फंसे नजर आते हैं।
वास्तव में इस संसार में किसी सुखी आदमी को ढूंढ निकालना टेढ़ी खीर है। यदि हमें कोई सुखी नजर आता है तो उसके नजदीक जाने पर पता चलता है कि वह वास्तव में बहुत दुखी है। अमीर से अमीर व्यक्ति के अंतरमन में झांकने पर हमें पता चलता है कि वह तो गरीबों से भी ज्यादा दुखी है। यदि हम अमीरों की अमीरी में गौर से झांके तो हमें वहां भी विभिन्न प्रकार के दु:ख नजर आयेंगे। कोई धन के बिना दु:खी है, तो कोई धनसंपन्न होने के बाद भी उसे भोग न पाने की अशक्तता से दु:खी है। दु:ख हरेक को है। कोई किसी बात से दु:खी है तो कोई किसी बात से। संसार में हमें हर तरफ दु:ख ही दु:ख नजर आते हैं।
मानसिक तनाव, ोध, चिड़चिड़ापन, क्लेश, चिंता, अनिंद्रा, मादक पदार्थों की लत, हीनभावना, अहंकार, असंतुष्टि, भय, व्यग्रता, हृदय रोग, रक्तचाप और मधुमेह जैसी अनेकों बीमारियों के प्रभाव से हर दूसरा व्यक्ति दु:खी है। इस दु:ख के कारण मनुष्य के अंदर नकारात्मक भावों (Negative Thinking) में दिन ब दिन बढ़ोतरी होती जा रही है और सकारात्मक भावों (Positive Thinking) में लगातार कमी आती जा रही है। फलस्वरूप हम जिन्दगी को बोझ समझकर, निराश होकर उससे दूर भागते जा रहे हैं।
जिन्दगी भर हम सांसारिक स्तर पर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, संगीत व अन्य कलाएं सीखने का दौर चलता ही रहता है। लेकिन सही मायने में क्या हम सही ढंग से जीने की कला भी सीख पाते हैं। शायद नहीं। बावजूद इसके, सभी चाहते हैं कि उनका जीवन खुशहाल हो, शांति से भरा हो और निरोगी काया हो। लेकिन कैसे हो, यह जिज्ञासा प्रत्येक के मन में उठती है। दु:खों से दूर होने का उपाय हमारे धर्मशास्त्रों में, योगशास्त्रों में विभिन्न नामों एवं विभिन्न प्रकारों से बताया गया है। पर धर्मशास्त्रों को, धार्मिक पोथी समझकर एक तरफ रख दिया जाता है और तर्क दिया जाता कि धर्मानुकूल आचरण से सिर्फ भिक्षा मांगकर गुजारा किया जा सकता है। आपको मैं बार-बार एक बात याद दिलाता रहता हूं कि मनुष्य होना जीव का कितना बड़ा भाग्य है, और इसकी वजह इसमें कर्म करने के अधिकार का मिलना है। कर्म करना आपके हाथों में है। भाग्य भी पूर्वकृत कर्मों से ही निर्मित हुआ है। अत: हमें जो यह दुर्लभ सुअवसर मिला हुआ है। कर्म करते हुए हमें इसके एक-एक पल का अधिकाधिक लाभ उठाना है। क्रियमाण कर्मों में पूर्वकृत कर्मों प्रायश्चित भी परिगणित है, उसे कर्मों का शुद्धिकरण यानी cleansing fo karmic destiny भी कहा जाता है।
इस संसार में सबको सुख चाहिए। पीड़ा किसी को पसंद नहीं। फिर भी समय-समय पर लोगों को दोनों का स्वाद चखना पड़ता है। लेकिन सुख या दुख निजकृत कर्मों के फल स्वरूप ही प्राप्त होते हैं। पाप करने से पीड़ा और पुण्य करने से प्रफुल्लता मिलती है। प्रभु की भक्ति से आपको अपने कर्मों के प्रायश्चित का विवेक प्राप्त होता है, कर्मों के शुध्दिकरण का मार्ग प्रशस्त होता है। यदि आपको और अधिक धन चाहिए तो आप अपने पास मौजूद धन को जरूरतमंदों के बीच वितरित करने का काम शुरू कर दीजिए। यदि असाध्य रोग से पीड़ित हैं तो अस्पतालों में गरीब रोगियों की सेवा में संलग्न हो जाइए। यदि यश व कीर्ति चाहिए तो निचले तबके के लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। इसका प्रतिफल आपको सुख-समृध्दि, आरोग्य और सम्मान के रूप में प्राप्त होगा। क्योंकि हर यिा की बराबर व विपरीत प्रतियिा होती है। अत: यदि आप निष्काम भाव से जरूरतमंदों की मदद करेंगे तो उसका फल आपको अवश्य मिलेगा। यदि आप प्यार के लिए तड़प रहे हैं तो दूसराें को प्यार कीजिए, उपेक्षितों व निराश्रितों को गले लगाइए। इसका प्रतिफल यश-कीर्ति व प्यार के रूप में आपको अवश्य मिलेगा। 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्' अपने शुभाशुभ कर्मों का फल कर्ता को अवश्य प्राप्त होता है। यह शाश्वत नियम है। प्रभु की भक्ति का फल मधुर व शाश्वत होता है। आभ्यंतरिक योग साधना से मनुष्य के अंदर ऐसी नैसर्गिक क्षमता विकसित होती है कि वह तन-मन-धन से अपने सुख व कल्याण का सरल मार्ग चुनने में सक्षम हो जाता है और अपने कल्याण के साथ दूसराें को भी इस मार्ग में अग्रसर होने की प्रेरणा देने लगता है। |