विनियोग :
श्री गणेशाय नम:।
ॐ . अस्य श्री शनि स्तोत्रमन्त्रस्य, कश्यपऋषिस्त्रिष्टुप्छन्द:, सौरिर्देवता, रां बीजम्, नि:शक्ति, कृष्णवर्णेति कीलकम्, धमार्थ, काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध-पुरुषार्थसिद्धहर्थे जपे विनियोग:।
अपने दएं हाथ में जल लेकर पूजा के समय ‘अस्य श्री शनिस्तोत्रमन्त्रस्य से जपे विनियोग:’ तक पढक़र जल छोड़ दें। फिर दोबारा न्यास पढ़ें।
अथ न्यास :
करन्यास
शनैश्चराय अङ्गुष्ठाभ्यां नम:।
मन्दगतये तर्जनीभ्यां नम:।।१।।
करन्यास (योग मुद्राओं से नमन) -
भगवान शनि को देनों अंगुष्ठों की मुद्रा से नमस्कार है। दोनों तर्जनी से मन्दगतिरूप शनि को नमस्कार है।
अथोक्षजाय मध्यमाभ्यां नम:।
कृष्णाङ्गाय अनामिकाभ्यां नम:।।२।।
दोनों मध्यमाओं से उक्षज रूप शनि को नमस्कार है। दोनों अनामिकाओं से कृष्णांग (शनि) को नमस्कार है।
शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
छायात्मजाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:।।३।।
दोनों कनिष्ठिकाओं से शुष्कोदर उन प्रभु को नमस्कार है तथा दोनों करतलों से और करपृष्ठों से उन छायापुत्र देव को नमस्कार है।
हृदयादिन्यास:-
शनैश्चराय हृदयाय नम:।
मन्दगतये नम: शिरसे स्वाहा।।
अधोक्षजाय नम: शिखायै वौषट्।
कृष्णाङ्गाय कवचाय हुं।
शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
छायात्मजाय नम: अाय फट्।।
इसी प्रकार हृदयविन्यास भी करें -
‘शनैश्चराय हृदयाय नम:’ से हृदय, ‘मन्दगतये शिरसे स्वाहा’ से सिर, ‘अधोक्षजाय शिखायै वषट’ से शिखा, ‘कृष्णांगाय कवचाय हुं’ से दोनों हाथों का स्पर्श करें व ‘शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट्’ से दोनों आंखों और मस्तक के बीच को छुएं।
‘छायात्मजाय अय फट्’ बोलकर दोनों हाथों से ताली बजायें।
दिग्बन्धनम् -
ॐ भुर्भुव: स्व:, इति दिग्बन्धनम्।
इस मन्त्र को पांच बार पढक़र दिग्बन्धन करना चाहिए। और सामने, दायें, पीछे, बायें, ऊपर, नीचे जल छिडक़ें।
ध्यानम्-
नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं
गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं
वन्दे सदाऽभीष्टकरं वरेण्यम् ।।१।।
ध्यान -
नीलद्युति वाले, शूलधारी, किरीटधारी, गृध्र स्थित, त्रासकारी, और धनुर्धर, चतुर्भुजी, सूर्यपुत्र, शान्त स्वरूप, सत् अभीष्टकारक तथा वर देने योग्य (उन श्री शनि को) मैं नमन करता हूं।
प्रणम्य देवदेवेशं सर्वग्रह निवारणम्।
शनैश्चर प्रसादार्थचिन्तयामास पार्थिव: ।।२।।
देवों के भी देव तथा सब ग्रहों के निवारक शिव जी को प्रणाम कर उन शनिदेव की प्रसन्नता हेतु राजा ने चिन्तन किया।
रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथ: पुरा।
चक्रवर्ती च यज्ञेय: सप्तद्वीपाधिपोऽभवत्।।३।।
रघुवंश में दशरथ नाम के विख्यात राजा प्राचीन काल में हुए हैं। वे सातों द्वीपों के स्वामी चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं।
कृतिकान्तेशनिंज्ञात्वा दैवज्ञैंज्र्ञापितो हि स:।
रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यिति साम्प्रतं ।।४।।
विद्वान ज्योतिर्विदों से यह जानकर कि शनि इस समय कृतिका के अन्त में हैं और राहिणी को भेदन करने जा रहा है।
शकटं मेधमित्युक्तं सुराऽसुरभयङ्करम्।
द्वादशाब्दंतु दुर्भिज्ञे भविष्यति सुदारूणम् ।।५्।।
वे शकट मेध इस नाम से भी कहे गये हैं, देव व असुरों को भी वे भय प्रधान करने वाले हैं। बारह वर्ष तक भयंकर अकाल करने वाले होंगे।
एतच्छ्रुत्वातुतद्वाक्यंमन्त्रिंभि: सह पार्थिव:।
व्याकुलंचजगद्दृष्टवा पौर जानपदादिकम् ।।६।।
इस प्रकार उनके वाक्य सुनकर सम्पूर्ण जगत्, नगर वासियों, मांडलिकों को व्याकुल देखकर राजा ने मंत्रियों के साथ (विचारा)।
बु्रवन्तिसर्वलोकाश्च भयमेतत्समागतम्।
देशाश्चनगरग्रामा: भयभीता: समागता: ।।७।।
‘यह अत्यधिक भय की बात है’ लोग ऐसा कह रहें हैं। देश, नगर और ग्राम सब भयभीत होकर आये हैं।
पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठप्रमुखान् द्विजान्।
समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहिमे द्विजसत्तमा: ।।८।।
वशिष्ठ सदृश प्रमुख द्विजों के पास राजा गये और पूछा - हे मुनिश्रेष्ठ ! इसका समाधन क्या है?
वशिष्ठ उवाच -
प्रजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन् भिन्नेकुत: प्रजा:।
अयं योगोऽध्यवसायश्च ब्रह्मा शक्रादिभि: सुरै: ।।९।।
वशिष्ठ बोले -
उस प्रजापति (रोहिणी) नक्षत्र के भिन्न (विपरीत) हो जाने पर प्रजा (का कल्याण) कहां? यह तो ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं द्वारा योग साध्य कर्म के ही आश्रित हैं।
तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ।
समाधाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितं।।१०।।
तब मन में निश्चय कर दिव्य आयुधों से समन्वित दिव्य धनुष को लेकर उन्होंने परम साहस किया।
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