रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्।
त्रिलक्षयोजनं स्थानं चन्द्रस्योपरिसंस्थितम् ।।११।।
रथ पर चढक़र वेग से नक्षत्र मण्डल में गये और तीन लाख योजन ऊपर चन्द्र के ऊपर स्थित हो गये।
रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा महाबल:।
रथकेतुकाञ्चने दिव्ये मणिनातद्द्विभूषिते।।१२।।
रोहिणी के पीठ पर बैठकर मणियों से विभूषित दिव्य सुवर्णमय रथ की ध्वजा वाले महाबलशाली राजा स्थित हो गये।
हसंवर्णहयैर्युक्ते महाकेतु समुबिच्छ्रते।
दीप्तमानो महारत्नै: किरीटमुकुटोज्वलै:।।१३।।
व्यराजच्च तदाकाशे द्वितीय इव भास्कर:।
आकर्णचापामाकृष्य सहस्राां नियोजितं।।१४।।
हंस वर्ण के अश्वों से युक्त, ऊपर उठी महान् ध्वजा वाले महान् रत्नों से चमकीले, और उज्जवल किरीट मुकुटों से (युक्त राजा दशरथ)
द्वितीय सूर्य के समान आकाश में विराजित हुए। (उन्होंने) सहस्रा को रखकर धनुष को कान तक खींचा।
कृतिकान्तं शनिज्र्ञात्वा प्रविशतांच रोहिणीम्।
दृष्ट्वा दशरथंचाग्रे तस्थौतु भृकुटामुख:।।१५।।
शनि कृतिका के अन्त को जानकर और रोहिणी को प्रविष्ट हुई तथा दशरथ को उग्र देखकर टेढ़ी दृष्टि कर ठहर गये।
सहस्त्रास्त्रां शनिर्दृष्टवा,सुराऽसुरनिषूदनम्।
प्रहस्य चभयात् सौरिरिदं वचनमब्रवीत्।।१६।।
शनिदेव ने दशरथ के सहस्त्र अस्त्रों को देख पीडि़त होने वाले देवों व असुरों को भयभीत देखकर हँसकर यह वचन कहा।
शनिरुवाच-
पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न कस्यचित्।
देवासुरामनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।।१७।।
मयाविलोकिता: सर्वेभयं ‘गच्छन्ति तत्क्षणात्।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र! तपसापौरुषेण च।।१८।।
शनिदेव बोले -
हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पौरुष (पराक्रम) मैंने किसी में नहीं देखा है। देव, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर आदि जितने भी हैं, वे सभी मुझे देखते ही तत्क्षण भयभीत हो जाते हैं। हे राजन् ! मैं आपके तप और पौरुष से सन्तुष्ट हूँ।
वरं बू्रहि प्रदस्यामि स्वेच्छया रघुनन्दन।
हे रघु नन्दन ! (आप) स्वेच्छा से बतायें मैं आपको (क्या) वर दूँ।
दशरथ उवाच-
प्रसन्नोयदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वर: पर: ।।१९।।
दशरथ बोले-
हे सौर स्वामिन् ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक ही वर दें वही श्रेष्ठ है।
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदचन।
सरित: सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।।२०।।
तो कभी भी रोहिणी को भेदकर न जायें। जब तक नदी, सागर, सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी हैं।
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