याचितं तु महासौरे ! नान्यमिच्छाम्यहं परम्।
एवमस्तुशनि प्रोक्तं वरंलब्धवा तु शाश्वतम्।।२१।।
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरय सुब्रत।।२२।।
हे महासौरिन् ! मैंने जो याचना की है इससे बढक़र अन्य कुछ मैं नहीं मांगना चाहता हूं। तब शनि देव के एवमस्तु कहने पर दशरथ उनसे यह शाश्वत वर प्राप्त कर कृतकृत्य हो गये। तब पुन: सन्तुष्ट होकर शनि ने कहा कि हे सुव्रती राजन् ! अन्य वर और मांग लो।
प्रार्थयामास हृष्टात्मा वरमन्यं शनिं तदा।
नभेत्तव्यं न भेत्तव्यं त्वया भास्करनन्दन।।२३।।
तब भगवान् शनि को अन्य वरदायक जान कर राजा ने प्रार्थना की - हे भास्कर नन्दन ! आपसे हम भयभीत न हों कभी भयभीत न हों।
द्वादशाब्दं तुं दुर्भिक्षं न कर्तव्यं कदाचन।
कीर्तिरेषामदीयां च त्रैलोक्ये स्थापय प्रभो।।२४।।
हे प्रभो ! बारह वर्षो का दुर्भिक्ष (अकाल) कभी न हो। तीनों लोकों में मेरी इस कीर्ति की स्थापना करें।
एवं वरं तु संप्राप्य हृष्टरोमा स पार्थिव:।
रथोपरिधनु: स्थाप्यभूत्वा चैव कृताञ्जलि:।।२५।।
इस प्रकार वर प्राप्त कर प्रसन्न चित्ता होकर उस राजा ने रथ के ऊपर धनुष रख दिया और दोनों हाथ जोड़ कर।
ध्यात्वा सरस्वतीं देवीं गणनाथं विनायकम्।
राजादशरथ: स्तोत्रं सौरेरिदमथाऽकरोत्।।२६।।
(इस प्रकार) सरस्वती देवी को और विनायक गणेश जी को ध्यान कर राजा दशरथ ने शनिदेव की यह स्तुति की।
दशरथ उवाच
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।
नम: सुरूपगात्राय स्थूलरोमे नमो नम:।।२७।।
दशरथ बोले -
हे कृष्ण, नील वर्ण वाले, मोर कण्ठ की आभा वाले आपको नमस्कार है। सुन्दर शरीर और स्थूलरोम वाले आपको नमस्कार है।
नमोनित्यं क्षुधात्र्ताय अतृप्ताय च वै नम:।
नम: कालाग्निरूपायकृष्णाङ्गाय च वै नम:।।२८।।
सदा क्षुधाकुल अतृप्त रहने वाले आपको नमस्कार है। साक्षात् कालाग्नि रूप तथा कृष्णांग आपको नमस्कार है।
नमोदीर्घाय शुष्काय कालदृष्टे नमो नम:।
नमोऽस्तुकोटराक्षाय दुर्भिक्षाय कपालिने।।२९।।
सबसे दीर्घ, शुष्क, कालदृष्टि आपको नमस्कार है। कोटराक्षी, दुर्भिक्ष, कपाली नाम वाले आपको ंनमस्कार है।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।
नमो मन्दते ! रौद्र भानुज ! भयदायिने ।।३०।।
घोर, रूद्र, भीषण, कपाली आपको नमन है। हे मन्दगामी!
हे रूद्र! हे सूर्य पुत्र! हे भयदता! आपको नमस्कार है।
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