कर्म-सिद्धांत और भाग्य

 

कर्म-सिद्धांत और भाग्य
श्री सिद्ध शक्तिपीठ शनिधाम पीठाधीश्वर
श्रीश्री 1008 महामंडलेश्वर परमहंस दाती महाराज

कर्म का क्षेत्र बहुत व्यापाक है। परम सर्वोच्च सत्ता ने भी सर्वप्रथम एक से अनेक होने का संकल्प लिया और यह सृष्टि बन गयी। वह संकल्प भी कर्म था और उससे जुड़े जो भी नियम परम नियंता ने बनाये हैं वह सब भी कर्म का ही विस्तार है। हम भी परम सर्वोच्च सत्ता के उस संकल्प की बदौलत ही अस्तित्व में आये हैं और नैसर्गिक रूप से चाहे अनचाहे सदैव कर्मों में संलग्न रहते हैं।

वैदिक साहित्य और पौराणिक ग्रंथों में तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं - संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। श्रीमद् भगवद्गीता में कर्म तत्व की बड़ी सरल और यथार्थ व्याख्या की गयी है। इसके लिए वहां कर्म योग की चर्चा आयी है। कर्म को वहां एक ऐसा तत्व माना गया है जो जीव के साथ वैसे ही घुल जाता है जैसे जल में नमक। कर्मवश जीव का सुख-दु:ख में पिसा जाना निश्चित है, अर्थात अच्छे-बुरे कर्मों का फल अच्छा या बुरा होना स्वाभाविक है। फिर भी देखने में आता है कि व्यक्ति कर्म करता है तब भी अनेक बार उसे कर्म का फल नहीं मिलता। कई बार फल मिलता भी है तो बहुत देर से मिलता है। बहुत बार अच्छे कर्मों का फल भी मनुष्य को अच्छा नहीं मिलता जबकि दुराचारी पुरुष समस्त अधर्म और पाप करके भी शुभ फल भोगता दिखायी देता है। ऐसे में लोगों को कर्म सिध्दांत पर ही शंका होने लगती है। लेकिन ऐसी शंका उचित नहीं। क्योंकि जीव के साथ उसके जन्म-जन्मांतर के कर्मों का पिटारा जुड़ा रहता है। अत: जब जिस कर्म के फल भोग की बारी आती है, जीव उसे भोगा करता है। चूंकि हमें किसी व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्मों का ज्ञान नहीं, इसीलिए कर्म और भोग के सिध्दांत का सही सत्यापन करने में हम असमर्थ हो जाते हैं।

 Previous    1   2   3   4   5     Next 
Last updated on 24-11-2024
Home :: Lord Shani :: Shani Sadhe Satti Dhaiya :: Shree Shanidham Trust :: Rashiphal :: Our Literature
Photo - Gallery :: Video Gallery :: Janam Patri :: Pooja Material :: Contact Us :: News
Disclaimer :: Terms & Condition :: Products
Visitors
© Copyright 2012 Shree Shanidham Trust, All rights reserved. Designed and Maintained by C. G. Technosoft Pvt. Ltd.