कर्म-सिद्धांत और भाग्य
सब कुछ आपके निर्णय पर टिका है। सही निर्णय व उचित प्रयास से व्यक्ति बहुत कुछ पा सकता है। पाने की क्षमता तो हर व्यक्ति में परमात्मा ने पहले से ही डाल रखी है। उस क्षमता का उचित उपयोग कर श्रेठता की ओर अग्रसर होते हुए विकास की चोटी पर खुद को ले जाया जा सकता है। जरूरत है दृढ़ संकल्प के साथ दक्षता पूर्वक कर्मरत रहने की। हमारे कर्मों के अनुरूप ही हमें कर्मफल मिलते हैं जिनका हमें फल उपलब्ध होता हैं। कर्मफल भोग और कुछ नहीं, हमारे कर्मों के ही रूपांतरण कहे जा सकते हैं। कर्मों को शुभ दिशा में रूपांतरित करने से मनुष्य को देवत्व की भी प्राप्ति हो सकती है।
अलग-अलग सम्प्रदायों में शुभ कर्मों की अलग-अलग व्याख्या की गयी है। परंतु सामान्य तौर पर शुभ कर्म वही है जिससे किसी का भी अहित न हो। यहां दो बातें आती हैं, पहली यह कि यदि किसी भी व्यक्ति का अहित न हो तो इसमें दूसरे के अहित का सवाल ही नहीं उठता और दूसरी बात यह कि स्वयं का भी अहित नहीं होना चाहिए। बस, यदि मनुष्य इसी बात का ख्याल रखे तो यह प्रवृत्ति उसको श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बना सकती है। हमारे कर्म वहीं पुण्य बन जाते हैं जहां हम दूसरों के हित का ख्याल रखते हुए कर्म करने की प्रवृत्ति के आदी बन जाते हैं, अपने हित के लिए किसी पर अत्याचार नहीं करते। और जब हम किसी पर अत्याचार करने की दानवी प्रवृत्ति से विमुख हो जायेंगे तब स्वत: हमारे अंदर करुणा के भाव जाग्रत होंगे। फलस्वरूप हमारे अंदर बैठी मानवीय भावनाओं को बल मिलेगा। जब हमारे अंदर मानवीय भावनाएं प्रबल होंगी तो हमारे अंदर दूसरों को भी सुखी देखने की प्रवृत्ति पनपेगी, हमारे अंदर दया के साथ दान की सात्विक भावना हिलोरें लेने लगेगी। और हम शीघ्र ही देवत्व की सीढ़ी पर चढ़कर अपनी कुवृत्तियों का दमन करने में समर्थ हो जायेंगे। इस प्रकार जहां दमन, दया एवं दान तीनों एक साथ हों, वहां तो पाप हो ही नहीं सकता, केवल पुण्य ही पुण्य होगा। और मजे की बात यह है कि इन पुण्य कर्मों का फल भी बड़े संयम से उपलब्ध होगा और पुण्य में ही परिगणित होगा। उन पुण्यों का फल भोग हमें फिर पुण्य करने और सुख प्राप्त करने की ओर भी प्रेरित करेगा।
जब उक्त प्रवृत्तियों में तीनों या किसी एक की कमी आती है तो उससे मनुष्य के यिमाण कर्म भी प्रदूषित होने लगते हैं। मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। मनुष्य अपने कर्मों से अपने लिए स्वर्ग के सुख और नरक के दुख का निर्माण स्वयं करता है और उनके फल भोग कर सुखी या दुखी बनता है। मनुष्य जब सांसारिक विषयों के भोग की सीमा में ही अपने को आबध्द कर लेता है तब न केवल वह अपने परम लक्ष्य व पुरुषार्थ को भूल जाता है बल्कि तरह-तरह के रोगों का शिकार भी बन जाता है। |