कर्म-सिद्धांत और भाग्य
इस प्रकार वह अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों का बुरा फल भोगते हुए लगातार विषय भोगों की ओर ही उन्मुख होता चला जाता है। फलस्वरूप वह ऐसे भंयकर रोगों व प्रतिकूलताओं के शिकंजे में फंस जाता है जिससे निजात पाना मुश्किल ही नहीं असंभव सा बन जाता है। उन प्रतिकूल फलों व रोगों से पीड़ित मनुष्य को उस नारकीय यातना से छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह के उपायों व औषधियों का सहारा लेना पड़ता है, किंतु जब उनसे भी उसे कोई राहत नहीं मिलती तो अपने भाग्य और भाग्य-विधाता को कोसना शुरू कर देता है। वह चीखता है, चिल्लाता है और सहायता की गुहार से दिक्-दिगंत को प्रकंपित कर देता है। किंतु कौन सुने उसकी फरियाद को जब स्वयं वही अपनी आवाज को नहीं सुन रहा है? सभी साधु-संत और धर्म ग्रंथ विषय भोगों की अति न करने की चेतावनी देते हैं, अशुभ कर्मों से बचने की सलाह देते हैं। किंतु जब मनुष्य सबकी बातों को अनसुनी करता रहे तो उसकी कौन सुने और क्यों सुनें?
अत: यदि मनुष्य को दुख भरे नरक से अपना उध्दार करना है तो उसे विषय-भोगों की अति से बचना होगा, अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाना होगा, भोगेंद्रियों की विषय-वासनाओं का दमन करना होगा। किंतु इस दमन में भी अति से बचना आवश्यक है। अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती। कहा भी है - 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'। चाहे विषय भोग की अति हो, चाहे इंद्रिय दमन की। दोनों ही स्थिति में मध्यम मार्ग अपनाये जाने की जरूरत है। वर्ना विषय भोगों या इंद्रिय दमन की अति के साथ प्रारब्धजन्य अशुभ कर्मफल भोगों की यदि युति हो गयी तो प्रतिकूलताओं के भंवर व भयंकर रोगों की यातना से कोई भी लौकिक प्रयास या औषधि छुटकारा नहीं दिला सकती। हम रोते-चिल्लाते व दर-दर भटकते फिरेंगे कल्याण और सुख की खोज में, और दुख हमारे और समीप आते जायेंगे। याद रहे, किसी भी तरह की सांसारिक वस्तु का अत्यधिक सेवन करने से उसकी चाहत समाप्त नहीं होती बल्कि और भी बढ़ती जाती है। और उसकी चाहत दिन-ब-दिन हमें उनके भोग की अधिकता की ओर धकेलती जायेगी जिसका अंत पहले से भी अधिक प्रतिकूलताओं, दुस्सह्य रोग और शोक में होता है। बात यह है कि जब हम अतिशय विषय-भोग में लिप्त होते हैं तब उसके मोहपाश में बधते चले जाते हैं। किसी भी वस्तु के प्रति अतिशय आसक्ति मनुष्य को अधोगति की ओर ले जाती है। फलस्वरूप उसे दु:ख-सागर में गोते लगाना पड़ता है।
आश्चर्य है कि चुनने व निर्णय लेने और कर्म करने की क्षमता से युक्त होने के बावजूद मनुष्य अतिशय विषय-भोग और उसके परिणाम पर गहराई से विचार नहीं करता और उथले सोचकर तात्कालिक व क्षणिक सुख को अहमियत देते हुए बार-बार विषय-वासनाओं के अतिशय भोगों की तरफ ही वापिस लौट आता है। बार-बार उन भोग्य-वस्तुओं के प्रति मोहित हो उनकी आसक्ति में बंध जाता है। फलस्वरूप वह विषय-भोग लीला का एक कठपुतली बन कर नाचता रहता है और उसी को अपनी वास्तविक दुनिया समझने का भ्रम पाल लेता है।
परंतु उसका यह व्यापार ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाता। क्योंकि कुदरत ने हर चीज की सीमाएं बांध रखी है, इंद्रियों की भी और भोग्य विषयों की भी। अतएव अति का तो प्रभाव पड़ना ही है। व्यक्ति अतिशय विषय-भोगों के चक्कर में पड़कर खुद को उपेक्षित छोड़ देता है। लेकिन जब अतिशय विषय-भोग उसे रोग की कगार पर पहुंचा देते हैं जब सांसारिक विषयों की प्राप्ति हेतु उसके द्वारा विवेक पूर्वक कर्म संपादित नहीं होते, तब प्रतिकूलताएं भी उसे चारों तरफ से घेर लेती हैं, तब उसे अपने आप की याद आती है और उसे विषय-वासनाओं के भोग जनित रोगों और प्रतिकूल परिस्थितियों की पीड़ा से छुटकारा पाने की जरूरत महसूस होती है। इसके लिए वह तरह-तरह के उपाय करता है, भांति-भांति की औषधियों का सेवन करता है।
लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि आज मनुष्य उक्त तथ्यों को कुछ ज्यादा ही नजर-अंदाज कर रहा है। वह विषय-भोग से मिलने वाले क्षणिक सुखों के चक्कर में भविष्य के संभावित दु:खों को नकारता रहता है और प्रकृति के नियमों से सदा खिलवाड़ करता रहता है। यहां यह बात काबिले गौर है कि यदि हम संयमित रहेंगे और प्राकृतिक नियमाें का सही ढंग से पालन करते हुए प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं का उपभोग करते रहेंगे तो कोई कष्ट हमें छूएगा भी नहीं। |