कर्म-सिद्धांत और भाग्य
इस संसार की आबोहवा में पहली सांस लेने के बाद और आखिरी सांस लेने के मध्य की अवधि को प्राणियों का जीवन-काल कहा जाता है। और पूरे जीवन-काल में सभी जीव अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं। मनुष्य एक दृष्टिकोण से अन्य प्राणियों से सर्वथा भिन्न है कि उसे कर्म करने की क्षमता व निर्णय करने की स्वतंत्रता भी मिली हुई है। यही वजह है कि मनुष्य योनि को कर्म योनि भी कहा गया हैं। क्योंकि केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो प्रारब्ध कर्मों के भोग-बंधन को यिमाण कर्मों का सहारा लेकर ढीला या और अधिक कड़ा कर सकता हैं। इस प्रकार वह अपने प्रारब्ध कर्मों के फल भोग की दिशाओं को मोड़ सकता है। वह चाहे तो अपने को केवल प्रारब्ध भोग तक सीमित रख सकता है अथवा प्रारब्ध भोग की दिशा और दशा को भी बदल सकता है। मनुष्य को भी प्रारब्ध भोगना पड़ता है किंतु यिमाण कर्म करने की क्षमता का इस्तेमाल कर वह प्रारब्ध को भी अपने अनुकूल कर सकता है। जबकि अन्य प्राणी प्रारब्ध से प्रेरित होकर वही करते हैं जो प्रारब्धवश उन्हें भोगना होता है। लेकिन मनुष्य योनि में हमें कर्म और भोग दोनों की क्षमता मिली हुई है।
पशु-पक्षी भोजन कर सकते हैं, वे नरम बिस्तर पर सो सकते हैं, रंगीन रोशनी में रह सकते हैं पर स्वयं उन सुविधाओं का सृजन नहीं कर सकते। वे लोग जैसी स्थिति है, उसी का उपभोग करने के लिए बाध्य हैं। यदि वे कुछ करते हैं तो उसकी भी एक सीमा है जो प्रारब्ध द्वारा पहले ही तय कर दी गयी है कि उन्हें कैसे और क्या खाना है तथा कहां और किस प्रकार रहना है। वे प्रारब्ध के अनुसार ही कुछ कर सकते हैं, कोई बदलाव नहीं ला सकते। परन्तु मनुष्य अपने प्रारब्ध-जन्य भोगों को भी अपने यिमाण कर्मों के सहारे अनुकूल बना सकता है, बदल सकता है और यथावत भोग भी सकता है। तभी तो सब प्राणियों से श्रेष्ठ कहा जाता है मनुष्य!
हमारे कर्मों के प्रभाव से आगे की स्थितियों का निर्माण होता है। आज हम जो कुछ बोएंगे, कल के लिए उसी की फसल तैयार होगी। यदि अभी हम भोजन बना लेंगे तो आगे भूख लगने पर हमें दुख का सामना नहीं करना होगा। क्योंकि उस स्थिति में खाने के लिए हमारे पास तैयार भोजन उपलब्ध होगा। परन्तु जो व्यक्ति अपना भोजन तैयार नहीं रखेगा, उसे भूख लगने पर परेशानी होगी और उस परेशानी की स्थिति में ही उसे भोजन तैयार करने का श्रम भी करना होगा। निश्चय ही पहली स्थिति की तुलना में दूसरी स्थिति बहुत कष्टप्रद होगी। यहां एक बात और भी गौर करने लायक है कि यदि हमारा पहले से बनाया भोजन मीठा होगा तो हमें मीठे भोजन का आनंद मिलेगा और यदि तीता होगा हमें उसके तीतेपन का सामना करना होगा।
कितनी स्पष्ट बात है कि हम जैसा बनाते हैं, वैसा ही पाते हैं। यदि अच्छी चीज का निर्माण करेंगे तो उसी के अनुरूप अच्छी चीज पायेंगे। इस समय जैसा करेंगे हमारे लिए आगे का दृश्य उसी के अनुरूप निर्मित होगा। शीशे के सामने यदि कोई सुन्दरी खड़ी होगी तो उसमें किसी कुरूपा का मुख प्रतिबिम्बित नहीं होगा और न कुरूपा के खड़ी होने पर दर्पण में किसी सुन्दरी का मुखमंडल प्रतिबिंबित होगा। यह बात बड़ी आसानी से साधारण से साधारण लोगों की समझ में भी आ जाती है। परंतु जब बात आती है कर्म की तो मुनष्य अक्सर भटक जाया करता है। सदैव उसके मन में द्वन्द्व का तूफान उठता रहता है। लेकिन जहां ऐसे द्वन्द्व की बात आती है, वहां घबराने की जरूरत नहीं। वह बड़ी सुन्दर बात है, क्योंकि वहां आपके अंदर स्थित निर्णय लेने की क्षमता के उपयोग का अवसर मिल जाता है। यदि आप चाहें तो किसी सुन्दर पथ पर अग्रसर हो सकते हैं, चाहें तो गङ्ढे में गिर सकते हैं, या पर्वत की बुलंदियों पर भी अपने आप को स्थापित कर सकते हैं। आपमें यह सामर्थ्य भी है कि सागर की अथाह गहराइयों में उतर कर अनमोल मोतियों का भंडार पा सकते हैं, या समुद्र के किनारे से ही सीप-घोंघे समेटने में अपना यह अनमोल जीवन व्यर्थ गंवा सकते हैं। |