अधोदृष्टे! नमस्तेऽस्तु संवर्तकभयाय च।
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च ।।३१।।
हे अधोदृष्टे ! हे संवर्तक ! हे भयानक ! आपको नमस्कार है। तप से दग्ध शरीर वाले और नित्य योग में रत आपको नमस्कार है।
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेतु कश्यपात्मजसूनवे।
तुष्टो ददासिवै राज्यं रूष्टोहरसि तत्क्षणात् ।।३२।।
हे ज्ञाननेत्र! हे कश्यप के पौत्र! यदि आप तुष्ट होते हैं तो राज्य प्रदान करते हैं और यदि रुष्ट होते हैं तो उसी क्षण (राज्य) हरण करते हैं।
सूर्यपुत्र ! नमस्तेऽस्तु सर्वभक्षाय वै नम:।
देवा-ऽसुर-मनुष्याश्च पशु-पक्षि-सरीसृप:।।३३।।
हे सर्वभक्षी सूर्यपुत्र, आपको नमस्कार है। संसार में देव, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप (साँप आदि)।
त्वया विलोकिता: सर्वे देवाचाशुव्रजन्तिते।
ब्रह्माशक्रोहरिश्चैव ऋषय: सप्ततारका:।।३४।।
सब देवता और ब्रह्मा, इन्द्र, हरि (विष्णु), ऋषिगण और सातों नक्षत्र समूह (ध्रुव आदि) आपके देखते ही चले जाते हैं।
राज्यभ्रष्टा: पतन्त्येयेत्वयादृष्ट्यावलोकिता।
देशाश्चनगरग्रामा द्वीपाश्चैवतथाद्रुमा:।।३५।।
आपके नेत्र दर्शन से राज्य भ्रष्ट हो पतन को प्राप्त होते हैं। देश, ग्राम, नगर, द्वीप आदि सब (आपसे दृष्ट हैं)।
त्वयाविलोकिता सर्वे विनश्यन्ति समूलत:।
प्रसादं कुर हे सौरे ! वरदे भव भानुज।।३६।।
आपके देखते ही सभी समूल विनष्ट हो जाते हैं। हे सौरे (शने), कृपा करो। हे भानुपुत्र, आशीर्वाद दो।
एवं स्तुतस्तद सौरि: स: राजो महाबल:।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिव:।।३७।।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत।
एवं वरं दास्यामि यत्ते मनसि वर्तते ।।३८।।
इस प्रकार शनि भगवान् की स्तुति की महापराक्रमी राजा (ऐसा) और पुलकायमान होकर शनि ने कहा - हे राजेन्द्र मैं आपके इस स्तोत्र से प्रसन्न हूँ। मैं ऐसा वर तुम्हें दे रहा हूँ जैसा तुम्हारे मन में है।
दशरथ उवाच
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृतिपिंगाक्ष ! पीडादेया न कस्यचित्।।३९।।
दशरथ ने कहा -
हे सौरनेमि! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे इच्छित वर प्रधान करें। हे पिंगाक्ष! आज से लेकर आप किसी को भी पीड़ा न दिया करें
प्रसादं कुरू मे सोरे! वरोऽयं मे मयेसिप्त:।
हे सौरिन्! मुझ पर कृपा करें। यह मेरा अभीष्ट वर है।
शनिरुवाच
अदेयस्तु वरोयुस्मत् तुष्टोऽहं च ददामि ते।।४०।।
राजन् ! यह अदेय वर होते हुए भी मैं आपसे प्रसन्न हूं और तुम्हें यह वर दे रहा हूं।
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