कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम्।
प्रात:काले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ।।९१।।
पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम्।
नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ।।९२।।
यह समयानुसार कहा गया, न्यासक्रम से समन्वित है। इसे प्रात:काल या सायंकाल पाठ करने से न अग्नि, न जल, न वायु, न देश और न विदेश में ही भय होता है।
नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत्।
आयुर्वर्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविन ।।९३।।
न ही अकाल मरण और न अपमृत्यु ही उनकी होती है। वे जन सौ वर्ष की आयु वाले चिरंजीवी होते हैं।
नात: परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत्।
शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम् ।।९४।।
इसके जैसा अन्य कोई स्तोत्र शनि को प्रसन्न करने वाला नहीं है। यह शान्तिदायक, शीघ्र फलदयक स्तोत्र मैंने कहा है।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छयात्मनो हितम्।
कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित् ।।९५।।
इस प्रकार सब प्रयत्न से यदि आत्म कल्याण चाहते हो, तो हे महादेवी ! यह किसी अभक्त से कथनीय नहीं है।
इति मार्तण्डभैरवतन्त्रे महाकालशनिमृत्युञ्जय स्तोत्रं सम्पूर्णम्। |