नमोनन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकर: शिवे।
आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुने जपेन्नर:।।८१।।
हे शिवे, यह शनि सन्तुष्टिकारक है। आदि से अन्त तक एक सौ आठ नाम वाले इन मनु रूप शनि देव का निरन्तर जप करना चाहिये।
य: पठेच्छृणुयाद्वापि ध्यात्वा सम्पूज्य भक्तित:।
तस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये।।८२।।
जो भक्ति पूर्वक ध्यान-पूजा करके इस स्तोत्र को पढ़ता है या सुनता है। हे प्रिये ! उसे यह मृत्युभय सौ वर्ष तक भी नहीं होता है।
ज्वरा: सर्वे विनश्यंति दद्रु-विस्फोटकच्छुका।
दिवा सौरि स्मरेत् रात्रौ महाकालं यजन पठेत् ।।८३।।
सब ज्वर, दर्द, फोड़े इससे विनष्ट हो जाते हैं। दिन में सौरि शनि का स्मरण करें और रात्रि में महाकाल का पूजन करें।
जन्मांगे च यद सौरिर्जपेदेतत्सहस्रकम्।
वेधगे वामवेधे वा जपेदद्र्धसहाकम्।।८४।।
जब शनि जन्मांग में चलता है तो एक सहा, यदि वेध करता है या वामवेध में है तो आधा सह जप करते रहना चाहिये।
द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टेऽपि वा।
तत्तद्राशौ भवेद्यावत् पठेत्तावद्दिनावधि।।८५।।
द्वितीय व द्वादश भावस्थ होने या मन्द होने पर या तनु (प्रथम) स्थान में या अष्टम भाव में होने पर यह जब तक उन राशियों में रहता है, उस अवधि तक यह पढ़ते रहना चाहिये।
चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवमे तथा।
गोचरे जन्मलग्नेशो दशास्वान्तर्दशाषु च ।।८६।।
गुरूलाघवज्ञानेन पठेत्तावदिनावधि।
शतमेकं त्रयं वाच शतयुग्मं कदाचन ।।८७।।
चतुर्थ में, दशम में, सप्तम में नवम तथा गोचर में जन्म लग्नेश होने पर या अन्तर्दशा में हो, अधिक, कम ज्ञान से जैसे भी हो, उस अवधि के बीतने तक इस स्तोत्र को यथाशक्ति एक सौ, तीन सौ या दो सौ पाठ करना चाहिये।
आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत।
महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ।।८८।।
पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे।
नियमेवैकमत्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ।।८९।।
श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम्।
परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयांभिधम् ।।९०।।
जो इस पाठ का जप करता है उसकी आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। पाप नष्ट हो जाते हैं और जय भी होती है। महाकाल के मन्दिर में सिद्ध पीठ में या जल तीर्थ सरोवर में, पुण्य स्थान में, अश्वत्थ मूल में, घर द्वार पर तेल का घड़ा रखकर गृह में नियम से, एकमन से, ब्रह्मचर्य पूर्वक मौन से साधकों को यह सुखकारक स्तोत्र सुनना और पढऩा चाहिए। परम कल्याणकारी यह स्तोत्र मृत्युंजय सूचक है। |