त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्तिमानवा:।
देवासुर मनुष्याश्चसिद्ध विद्याधरोरगा:।।४१।।
तुमने जो मेरा स्तोत्र कहा है, जो भी मनुष्य उसे पढ़ेंगे तथा देव, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर जो भी है।
न तेषां बाधते पीड़ा मत्कृता वै कदाचन।
मृत्यु स्थानचतुर्थेवाजन्म-व्यय-द्वितीयगे।।४२।।
(जन्म कुन्डली में) मृत्यु स्थान अष्टम भाव, चतुर्थ भाव, लग्न, व्यय या द्वितीय स्थान में उन सबको (इसे पढऩे पर) कभी भी मेरे द्वारा पीड़ा नहीं होगी।
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च।
य: पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यां वा शुचिर्भूत्वासमाहित:।।४३।।
न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्।
प्रतिमां लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्थजाम्।।४४।।
वरदांच धनु: शूल बाणांकितकरांशुभाम्।
अयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमत:।।४५।।
कृष्णैस्तिलै: शमीपत्रैघृतनीलपंकजै:।
पायसंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।४६।।
(इस कुण्डली की स्थिति में) गोचर में, लग्न में दशा, अन्तर्दशाओं में जो भी दोनों या तीनों सन्धिकालों (प्रात:, मध्याह्न, सायं) में पवित्र होकर इसे पढ़ेगा, उसे किसी प्रकार की पीड़ा मेरे द्वारा नहीं होगी, यह निश्चित है। हे राजन्! वरमुद्रा युक्त, धनुष शूल, बाण से अंकित शोभित चार भुजा वाली मेरी लौह प्रतिमा को बनवाकर दस सह जप कर उसके दशांश काले तिलों, शमी पत्रों, घृत और नील पुष्पों, शर्करा युक्त खीर तथा घृत मिश्रित शाकल्य से होम करना चाहिये।
ब्राह्मणान् भोजयेत्तत्र स्वशक्त्याघृत पायसै:।
तैले वा तिलराशौ वा प्रत्यक्षं चयथाविधि ।।४७।।
बाद में अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को घृत, खीर तथा तेल व तिल से बने पदार्थों का भोजन कराना चाहिये।
पूजनं चैव मन्त्रेण कुकुंमंच विलेपयेत्।
नील्यावाकृष्णतुलसी शमीपत्रादिभि: शुभै:।।४८।।
ददन्मे प्रीतये यस्तुकृष्णवाादिंक शुभम्।
धेनुवृषभंवाऽपि सवत्सां च पयस्विनीम्।।४९।।
नीली या कृष्ण तुलसी, शमी पत्रादि शुभपत्रों, कृष्ण वाादि को जो मेरी प्रसन्नता हेतु देता हुआ पूजन करता है। बैल को भी या बछड़े वाली दूध देने वाली सवत्सा गाय को विशेष-पूजा सहित मुझे समर्पित करता है।
एवं विशेषपूजां य: मद्द्वा कुरूते नृप।
मन्त्र द्वारा विशेषेन स्तोत्रेणानेन पूजयेत्।।५०।।
|