पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृतांजलि।
तस्यपीडां नचैवाहं करिष्यामि कदाचन।।५१।।
हे राजन्, इस प्रकार इस मंत्र और स्तोत्र से जो मेरी विशेष पूजा करता है, उस पुरुष को मैं कभी पीडि़त नहीं करूंगा।
रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्यच।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।५२।।
उसकी और अन्य ग्रह की पीड़ा से मैं निरन्तर रक्षा करता हूँ। यह जगत् इसी प्रकार से पीड़ा मुक्त हो सकता है।
वरद्वयं तु सम्प्राप्य राजा दशरथस्तदा।
मत्वा कृतार्थमात्मनं नमस्कृत्य शनैश्चरं।।५३।।
शनैश्चराभ्यनुज्ञातो रथमारूह्य वीर्यवान्।
स्वस्थानं च गतो राजा प्राप्तकामोऽभवत्तदा।।५४।।
(इस प्रकार) राजा दशरथ ने दो वर प्राप्त कर स्वयं को कृतार्थ मानकर और शनिदेव को नमन किया फिर उन शनिदेव से आज्ञा प्राप्त कर रथ पर चढक़र वह पराक्रमी राजा, अपने स्थान को गया और सिद्ध मनोरथ बन गया।
स्वार्थसिद्धिभवाप्याथ विजयी सर्वदाऽभवत्।
कोणस्थ: पिंङ्गलोवभ्रु: कृष्णोरौद्रान्तको यम:।।५५।।
सौरि: शनैश्चरौ मन्द: पिप्पलाश्रयसस्थित:।
एतानिशनिनामानिजपेदश्वत्थ सन्निधौ।।५६।।
वह अपना मनोरथ सिद्ध कर सर्वदा विजय को प्राप्त हुआ। कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अन्तक, यम, सौरि, शनैश्चर, मन्द, पिप्पल आश्रयस्थान के ये सब शनि - नाम हैं जो अश्वत्थ (पीपल) के समीप स्मरण करने चाहिये।
शनैश्चरकृता पीडा न कदापि भविष्यति।
अल्पमृत्युविनाशाय दु:खस्योद्धारणायच।।५७।।
स्नातव्यं तिलतैलेन धान्य माषादिकं तथा।
लौहं देव च विप्राय सुवर्णेन समन्वितम्।।५८।।
अल्प मृत्यु के विनाश के लिए और दु:ख से उद्धार के लिए तिल तेल लगाकर स्नान करना चाहिये तथा धान्य, उड़द, लौह और स्वर्ण से समन्वित देव मूर्ति (शनि) विप्र (ब्राह्मण) को देनी चाहिये। ऐसा करने से उसे शनि की पीड़ा कभी न होगी।
उशनिस्तोत्रं पठेद्यस्तु श्रृणुयाद्वा समाहित:।
विजयंचार्थकामंचारोग्यं सुखमवाप्नुयात्।।५९।।
(इति श्री शनिस्तोत्रं सम्पूर्णम्)
जो व्यक्ति एकाग्रचित्त समाहित होकर शनि स्तोत्र का पाठ एवं श्रवण करता है, वह विजय, अर्थ, काम, आरोग्य और सब प्रकार का सुख प्राप्त करता है।
(यह शनिस्तोत्र पूर्ण हुआ)
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